बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

चना के प्रमुख रोग व कीट ( Major diseases and pests of Chickpea )

रबी की दलहनी फसलों में चना मध्यप्रदेश के कृषि वैज्ञानिकों तथा कृषकों का सर्वाधिक ध्यानाकर्षण का केन्द्र है। यही कारण है कि चने का महत्व एक अच्छी आमदानी वाली फसल के रूप में उभरकर सामने आया हैं। भारत विश्व का सबसे अधिक चना (लगभग 75 प्रतिशत) उत्पादन करने वाला देश हैं। सारे भारत का लगभग तीन चैथाई उत्पादन क्रमशः तीन राज्यों- म.प्र., उ.प्र. तथा राजस्थान में होता है।

मध्यप्रदेश को यह गौरव प्राप्त है कि, वह भारतवर्ष का सर्वाधिक चने की पैदावार करने वाला प्रदेश है। जहाँ कि हमारे देश के कुल चने के उत्पादन का 47 प्रतिशत चना अकेले म. प्र. में होता हैं। इस गौरव को बनाये रखने के लिये वैज्ञानिको तथा कृषकों को प्रयासरत रहना पड़ेगा। इस लेख में चने की उपज को प्रभावित करने वाले अजैविक तथा जैविक कारकों तथा उनके नियंत्रण की जानकारी दी जा रही हैं जिन्हें अपनाकर कृषक बंधु उत्पादन में सार्थक वृद्धि कर सकते हैं।

 

अजैविक समस्यायें

१. सीड बैड

चने की खेती प्रायः वर्षा की सुरक्षित नमी पर निर्भर करती हैं। आवश्यकता पड़ने पर जहाँ संभव हो बोनी से पहले सिंचाई भी की जाती है। जड़ो के विकास के लिये खेत की मिट्टी भुरभुरी एवं समुचित गहराई वाली होनी चाहिये। पूर्व फसल के अवशेषों से मुक्त होना चाहिये अवशेषों के कारण मूल विगलन फफूँद विकसित होकर बीमारी फैलाती है।

 

२. बुवाई

उत्तम गुणवत्तायुक्त बीज बोना चाहिये। अंकुरण क्षमता की जाँच बीज बोने के पहले कर लेना चाहिये, जिससे कि बीज की मात्रा खराब अंकुरण की पूर्ति के लिये बढ़ा सकें।

 

३. अत्याधिक वानस्पतिक वृद्धि

उन क्षेत्रो में जहाँ फसल सामान्यतः अधिक बढ़ती है, बोनी समय से 2 या 3 सप्ताह देरी से करें।

 

जैविक समस्यायें

विश्व के अलग भागों से अबतक करीब 175 रोग कारकों का पता चला है जिनमें फफूँद जीवाणु तथा विषाणु सम्मिलित हैं।

मध्यप्रदेश में होने वाले प्रमुख रोगों में बीज सड़न, कालर सड़न, उकठा या उगरा तथा सूखा जड़ सड़न प्रमुख है। बीज सड़न को छोड़कर शेष तीनों रोगों में सूख जाते हैं। जबकि पौधे का सूखना तीन अलग अलग भूमि में उपस्थित फफूँदों के आक्रमण से पौधे की अलग अलग अवस्था तथा परिस्थिति में होता हैं। किसी भी रोग का समय पर उपचार न किया जाय तो इससे हानि होती हैं।

 

(अ)चने के  रोग तथा उनका नियंत्रण (Chickpea diseases and their control)

1. बीज सड़न

बीज सड़न कई प्रकार की भूमि जनित एवं बीज जनित फफूँदों के आक्रमण से होता है जो कि बीज के अंकुरण में रूकावट करती है। बीज अंकुरण से पूर्व ही सड़ जाते हैं।

नियंत्रण 

स्वच्छ एवं स्वस्थ बीज का चनाव करें।कटे अविकसित सिकुड़े बीज बोने के प्रयोग में न लायें।बोनी पूर्व फफूँदनाषक औषधि से बीजोपचार करें।ट्राइकोडरमा विरिडी + बीटावैक्स (4 ग्रा.) प्रतिकार्बन्डाजिम + थायरम 1:2 / किलो ग्राम बीजथायरम या 3 ग्राम. / किलो ग्राम बीज

(अ) जड़ तथा आधार तने को प्रभावित करने वाले

1 कालर सड़न – यह बीमारी प्रायः उन क्षेत्रो में अधिक होती है जहाँ बोनी के समय नमी की अधिकता और गर्म तापमान हो  (30 से.ग्रे.), पूर्व फसल को अधपचे अवशेषों का जमीन की सतह पर होना इस रोग को बढ़ावा देता है।

कारण

फफूँद- स्कलैरोशियम रोल्फसाई

लक्षण 

पौधावस्था से लेकर डेढ़ महिने की अवस्था में पाया जाता है।
रोगग्रस्त पौधे पीले होकर मर जाते हैं तथा आसानी से उखाड़े जा सकते हैं।
जमीन से लगा तने का भाग कमजोर होकर सड़ जाता है।
सड़े भाग से तने के भाग पर सफेद फफूँद तथा राई के दाने के आकार के स्कलैरोसिया दिखाई देते हैं।

प्रसार

भूमि में स्कलैरोसिया द्वारा।

नियंत्रण

बोनी के समय तथा पौधावस्था में भूमि में अधिक नमी नही होनी चाहिये।

बोनी पूर्व रोगी फसल अवशेषों को जलाना।

भूमि से अधपचा कार्बनिक पदार्थ निकालें।
समय से बोनी।
गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें।
गोबर की पकी खाद 10-15 बैलगाड़ी मिलायें।बीजोपचार करें।
रोग आने पर हल्की सिंचाई करें।

 

2. उकठा या उगरा (फ्युजेरियम विल्ट)

कारण

फ्यूजेरियम आक्सीस्पोसम फारमा स्पेशीज साइसेराई

लक्षण 

पौधावस्था से लेकर फली लगने तक कमीं भी हो सकती है।
रोगी पौधे में भुरकने के लक्षण उपर की टहनियों पर दिखते हैं।

जड़ को तने की ओर विभाजित करने पर भरी काली धारियों का होना।

पौधों का धीरे धीरे नीचे की ओर झुका हुआ मुरझाना।

नियंत्रण

बोनी पूर्व सावधारियाँ

भूमि ही गहरी जुताई (मई-जून)।दीर्घ फसल चक्र अपनायें।बीजोपचार कार्बेन्डाजिम + थाइरम (1+2) 3 ग्रा. /किलो।रोगरोधी जातियाँ लगायें।

 

देशी किस्में

जे.जी. 315, जे.जी. 74, जे.जी. 130, जे.जी. 218, जे.जी. 322, जे.जी. 16, जे.जी. 11, जे.जी. 63, जे.जी. 412, जे.जी.226, जाकी 9218, पी.जी. 5 विजय, विशाल

गुलाबी

जे.जी.जी.

काबुली

जे.जी.के., जे.जी.के. 2, आई.सी.वी. 2, काक 2

 

3. सूखा जड़ सड़न (ड्राई रूट राट)

कारण

राइजोक्टोनिया बटाटीकोला

लक्षण

फली बनने तथा दाना भरने की अवस्था में पौधो का सूखे घास के रंग का होना।

जड़ो का काली होकर सड़ना एवं तोड़ने पर कड़क से टूट जाना।

प्रसार

फसल अवशेष एवं भूमि में उपस्थित बीजाणुओं द्वारा (स्कलैरोसिया)

नियंत्रण

रोग आने पर हल्की सिंचाई करें।

 

बोनी पूर्व सावधानियाँ

भूमि की गहरी जुताई

।दीर्घ फसल चक्र।

फसल को शुष्क एवं गर्म वातावरण से बचाने के लिये बोनी समय पर करें।

रोगरोधी जातियाँ लगायें।

जे.जी.11, जे.जी.130, जे.जी.63, जाकि 9218, आई सी सी वी 10

 

4. काला मूल विगलन (ब्लैक रूट राट)

यह बीमारी अधिक नमी वाली भूमि मे पायी जाती हैं।

कारण

फ्युजेरियम सोलेनाई।

लक्षण 

1. जड़ से जुड़े तने के उपरी भाग पर काले भूरे धब्बों का पाया जाना।

जड़ो का काला पड़ला और सड़ जाना।

नियंत्रण

जल निकास की उचित व्यवस्था करें |

 

(ब) पत्तियों तथा शाखाओं के प्रभावित करने वाले रोग

1.  आल्टरनेरिया अंगमारी (आल्टरनेरिया ब्लाइट)

कारण

फफूँद आल्टरनेरिया इस रोग का प्रकोप विगत वर्षो से प्रदेश में अधिक पाया जा रहा हैं।

लक्षण

फूल तथा फली बनने की अवस्था में फसल बढ़वार अधिक होने पर इस रोग का प्रकोप होता है|

पत्तियों पर छोटे गोल तथा बैगनी रंग के धब्बे बनते हैं।

नमी अधिक होने पर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। 

तनो पर लम्बे एवं भूरे काले धब्बे बनते हैं।

प्रभावित पौधों के बीज खराब व सिकुड़ जाते हैं।

नियंत्रण

अत्याधिक वानस्पतिक वृद्धि पर नियंत्रण रखें।संक्रमित पौधो को उखाड़कर जला दें।रोग दिखते ही मैतकोजेब (डाईथेन एम 45) का 0.3 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें।

 

(स) विषाणु से हाने वाले रोग

स्टंट विषाणु या स्टंट वायरस

कारण

वायरस निमाड तथा मालवा क्षेत्र में रोग का प्रकोप अधिक देखा गया हैं।

पौधों में बौनापन और पोरियों की लंबाई में कमीं

।पत्तियों का छोटे होकर पीले, नारंगी या भूरे रंग में परिवर्तित होगा।

सामान्य पत्तियों की अपेक्षा रोग प्रभावित पत्तियों में अधिक कड़ापन होना।

तने के आंतरिक तंतुओ का भूरा पड़ना।

नियंत्रण

पत्तियों पर फुदकने वाले कीड़ों और माहू की रोकथाम करें।बोनी देर से करें।रोगग्रसित पौधों को उखाड़कर जला दें।

 

(ब)चने के प्रमुख कीट(Insect Pests of Chickpea)

चने के प्रमुख कीट पहचान एवं नियंत्रण

दलहनी फसलों में चना एक महत्वपूर्ण फसल है। मध्यप्रदेश में चने की इल्ली से चना फसल को अधिक हानि होती है। इसके अतिरिक्त, भंडारित कीट भी दानों की गुणवत्ता तथा अंकुरण क्षमता को प्रभावित करते है।

 

१.चने की इल्ली या घेंटी छेदक

चने की इल्ली या घेंटी छेदक इल्ली हेलिकोवर्पा आरमीजेरा एक बहुभक्षीय कीट है। यह दलहनी फसलों के अतिरिक्त, अन्य फसलों को भी हानि पहँचाती है। चना के काबुली या बड़े दानों वाली किस्मों को यह कीट अधिक नुकसान करता है। इस कीट के प्रकोप से सामान्यतया 15-20 प्रतिशत घेंटियाँ प्रभावित होती हैं परन्तु अधिक प्रकोप होने पर 80 प्रतिशत से भी अधिक घेंटियाँ क्षतिग्रस्त हो सकती है।

क्षति का प्रकार

इस कीट की इल्ली ही नुकसान पहँचाती है। छोटी इल्लियाँ पत्तियों के पर्णहरित (क्लोरोफील) को खाती हैं। बड़ी इल्ली, पत्ती तथा फलो को खाती है और घेंटीयों के अन्दर प्रवेश कर विकसित हो रहे दानों को खाती हैं। यह कीट एक घेंटी के दानों को खाने के बाद दूसरी घेंटी पर आक्रमण करती है।

 जीवन चक्र

हल्के भूरे रंग की प्रौढ़ मादा सलभ रात में सक्रिय रहती है और एक एक करके पत्तियों, कली या फलों तथा फलियो पर अण्डे देती है। अण्डा गोलाकार, चमकदार एवं पीले रंग का होता है। अण्डावस्था 4 से 6 दिन की होती है। अण्डों से निकलने वाली छोटी इल्लियाँ पहले तीन चार दिनों तक हरी पत्तियो तथा नरम षाखाओ को कुरेदती है।, तथा बाद में घेंटी आने पर उसमे प्रवेश कर हरे दानों को खाकर खोखला कर देती है।

पूर्ण विकसित इल्ली 24 से 30 से.मी. लम्बी होती है जिसका रंग हरा, पीला व भूरा हो सकता है, परन्तु इल्ली की लम्बाई में स्लेटी रंग की धारी होती हैं। यह इल्ली 22 से 28 दिन में जमीन के अन्दर शंखी में बदल जाती है। शंखी गहरे भूरे रंग की होती है और लगभग 16 मि.मी. लम्बी तथा 6 मि.मी. मोटी होती है। 18 से 25 दिन में शंखी से प्रौढ़ शलभ बनती है। सामान्यतः लगभग 35 से 40 दिनों में इस कीट का जीवन चक्र पूर्ण हो जाता है। दिसंबर एवं जनवरी माह में यह अवधि 40 से 50 दिनों तक बढ़ सकती है, इस प्रकार रबी मौसम में इस कीट की 2 से 3 पीढ़ियाँ पूर्ण होती है।

नियंत्रण

चने की फली छेदक इल्ली के समन्वित प्रबंधन हेतु किसान भाई पर्यावरण सुरक्षा को ध्यान में रखते हये निम्नलिखित उपायो को अपनाकर पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखते हये इल्ली का प्रभावि प्रबंधन कर सकते है।

 

1.सस्य कार्य द्वारा

खेत की गहरी जुताई करनी चाहिये। अकेला चना ना बोये। फसल चक्र अपनायें । क्षेत्र में एक साथ बोनी करें, चने की फली छेदक इल्ली का प्रकोप जल्दी बोई गई फसल पर कम होता है। अतः चना की बोआई अक्टूबर माह के अंत तक कर लेना लाभकारी होता है। चने की फली छेदक इल्ली का प्रकोप काबुली एवं गुलाबी चने की जातियों के अपेक्षा उन्नत प्रजातियाँ जैसे जे.जी.-315 एवं जे.जी.-74 में कम होता हैं। रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा ही डाले तथा अन्तरवर्तीय फसल जैसे गेहूँ, कुसुम-करडी, धनियाँ को चने के साथ बोयें।

 

2.यांत्रिकी विधि द्वारा

प्रकाष प्रपंच एवं फोरोमन प्रपंच खेतो मे लगाये, पौधो को हिलाकर एवं इल्लीयों को नीचे गिराकर इकट्ठा करके नष्ट करें। कीट भक्षी पक्षियों के आगमन को प्रोत्साहित करने के लिये खेत में 3-4 फुट लम्बाई की डंडी आदि गाड़ दे, जिस पर बैठकर पक्षी इल्लीयों का भक्षण कर सकें।

 

3. वनस्पती उत्पादों का प्रयोग

निबोली का काढ़ा 5 या निम्बीसिदीन 0.2 छिड़काव करें।

 

4. जैविक नियंत्रण

कीटनाषक दवाओं के अत्याधिक प्रयोग से प्रदूषण का खतरा बना रहता है जिसे ध्यान में रखकर इस कीट के नियंत्रण हेतु जैविक नियंत्रण की विधियाँ भी विकसित की गई है, जिनका उपयोग कर सफलता पूर्वक कीट नियंत्रण करें। न्यूकेलयर पालीहाइड्रो वाइरस (एन.पी.व्ही.) का 250 एल. ई. या बैसिलस थुरिनजियेन्सिस का 1 किलो ग्राम से 1.2 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।

 

5.रासायनिक नियंत्रण

इल्ली प्रकोप की सक्रियता के आंकलन हेतु कीट सर्वेक्षण करना आवश्यक है। इसके लिये 1 मीटर कतार में कम से कम 20 नमूने फसल के प्रति एकड़ क्षेत्र में देखना चाहिए । फूल तथा घेंटी आते समय यदि 1 मीटर पौधे की कतार मे 2 या इससे अधिक इल्ली दिखाई देने पर कीटनाशकों का भुरकाव या छिड़काव करना चाहिए।

इन्डोसल्फन 35 ई.सी. 1000 मि.ली. या क्विनालफास 25 ई.सी. 500 मि.ली. या मेलाथियान 50 ई.सी., 1000 मि.ली. या क्लोरपायरिफास 20 ई.सी. , 1000 मि.ली. या मिथोमिल 40 एस.पी. 1000 ग्राम या अल्फामेथ्रिन 25 ई.सी. 250 मि.ली. या डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 750 मि.ली. या फेनवलरेट 20 ई.सी. 300 मि.ली. या साइपरमेथ्रिन 25 ई.सी. 250 मि.ली. या पालीट्रिन सी. 44 ई.सी. 1000 मि.ली. या क्यूराक्रान 50 ई.सी. 2000 मि.ली. या इकालाक्स 20 ए. एफ. 2000 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

चने की इल्ली के परजीवी कीट कैम्पोलिटिस क्लोरिडी के प्रति इन्डोसल्फान 2: तथा इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 0.07 प्रतिशत तथा फेनवलरेट 20 ई.सी. 0.02 प्रतिशत छिड़काव काफी सुरक्षित देखा गया है।

 

भंडारित चने के कीट

ढ़ोरा (क्लेसोब्रूचस) प्रजाति के कीट भण्डारण में चना के दानों को अधिक प्रभावित करते है जिससे उनका खाद्यान्न मूल्य एवं अंकुरण क्षमता कम हो जाती है।

क्षति का प्रकार

कीट का प्रकोप होने पर दानों के उपर सफेद अण्डे देखे जा सकते है जो बाद में वयस्क होकर दानों में लम्बवत् गोल गड्ढा बनाकर बाहर निकलते है। कभी कभी ब्र्रुचिडस के अण्डे घेंटीयों पर भी पाये जाते है।

जीवन चक्र

भूरे रंग का वयस्क की, चने पर अण्डे देता हैं। इल्ली, अण्डे से बाहर निकलकर चने में सीधा छिद्र बनाती है। सफेद रंग की शंखी चने के अन्दर ही इल्ली से बनती है। कीट की एक पीढ़ी 4 सम 5 सप्ताह में पूरी हो जाती है। यही कारण है कि कीट की समाष्टि का विस्तार भण्डारण में बहुत तेजी से होता है।

नियंत्रण

बीज को सूखाकर भंडारण करें।भण्डारण गृह को साफ रखें। उसकी दीवारो, दरवाजो एवं अन्य स्थानों पर मेलाथियान 50 ई. सी. की एक ग्राम सक्रिय तत्व प्रति वर्गमीटर की दर से छिड़काव करें।भण्डारण के समय ई.डी.बी. एमप्यूल को सावधानी पूर्वक रखें।दाल पर दानों की अपेक्षा कीट का प्रकोप कम होता है अतः दाल बनाकर भण्डारण करना लाभप्रद हैं।

 

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